आख़िरी सफ़र ...
जीवन की आख़िरी सच्चाई से पाला पड़ा,
दुखी होकर भी सच्चे मन से वहां जाना पड़ा!
सबकी आँखे नम थीं लब थे ख़ामोश,
मौत सा सन्नाटा था चीखें तबाही की सुनी!
सफ़ेद लिबाज़ में लिपटे थे सभी,
ऐसा मातम नहीं देखा था कभी!
हिम्मत कर आँसूं न झलकने दिया मैंने,
खामोश नज़रों से सबको देखा किया!
रो रो कर जब थक जाते चुप हो जाते,
फिर भभक - भभक कर रो उठते थे वो!
कैसी लीला है तेरी हे मेरे भगवान,
चुप करते हुए रो पड़ा मैं भी एक इंसान!
आख़िरी सफ़र था चार कन्धों की ज़रूरत,
एक कन्धा मैं खुद बना वाह रे कुदरत!
राम नाम सत्य है का जाप चलता रहा,
वो चार कन्धों के ऊपर काफ़िला पीछे चलता रहा!
सफ़र ख़तम होते हीं गंगा का किनारा मिला,
डुबकी लगा कर किनारे का सहारा मिला!
चन्दन की लकड़ी एक एक कर कोई सजता रहा,
सिर्फ अकेला वो लेट सके मचान वो बनता रहा!
जब वो लकड़ियों के मचान पर लेट गया,
रोक न सका खुद को गम के आँसूं रोता रहा!
फिर एक आग की लपट ने लपेट लिया उसको,
वो दर्द जो मैंने सबने सहा कहूँ मैं किसको!
एक दिन यही हष्र सबके साथ होना है,
तक़दीर के दामन में छुपा मौत का कोना है!
मित्रों सादर नमस्कार, अपने स्वयं के एक रिश्तेदार के देहांत होने पर पहली बार अंतिम संस्कार में मौजूद होने पर घर लौट के आने के उपरान्त जो भाव मन में उमड़े वो आप सभी से साझा कर रहा हूँ ...क्यूंकि मेरा मानना है कि मृत्यु जीवन का आख़िरी कड़वा सच है, एक दिन हम सभी को न चाहते हुए भी उसका सामना करना हीं होगा! मेरे भाव को समझने और पढ़ने के लिए आपका कोटि - कोटि आभार एवं धनयवाद !
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