तुझे याद करके ऐ वतन ,
चुप चाप मैं यूँ रोता रहा !
वो सरहदों पर जागते रहे ,
मैं चैन से बेख़ौफ़ सोता रहा !
सियासतों की आपसी जंग में ,
कुछ बेगुनाह से पिसते रहे !
जब भी वो आपस में लड़े ,
कुछ मासूम सिसकते से रहे !
जब भी लहू बिखरा सरहदों पर ,
कुछ घरों के लोग बिलखते से रहे !
मैं भी देखूँ तुम भी देखो जरा ,
बिखरे लहू हमारे सरहदों पर !
जो मुझ पर है गुजरी किससे कहूँ ,
इस पार या उस पार का जो बिखरा है लहू !
ऐ खुदा मुझ पर बस इतना करम कर दो ,
क़ायनात रचो इंसानियत मजहब कर दो !
आपका : प्रकाश.
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